क्या इन प्रवासी मजदूरों का दुःख-दर्द हम सबका अपना नहीं है?

”परहित सरिस धरम नहिं भाई,
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।।” 

अथार्त परोपकार से बढ़कर कोई उत्तम कर्म नहीं और दूसरों को कष्ट देने से बढ़कर कोई नीच कर्म नहीं। परोपकार की भावना ही वास्तव में मनुष्य को 'मनुष्य' बनाती है।

जिस तरह पंछी चाहे जितनी भी दूर तक उड़ान भर ले लेकिन वापस लौटकर वहीं आता है जहाँ उसका घोसला या घरौंदा होता है। ठीक उसी तरह आज श्रमिक भी देश के विभिन्न शहरों से पलायन कर घर वापसी कर रहे हैं। संकट के इस काल में भी अपनी मातृभूमि एवं अपनी मिट्टी की याद एवं प्रेम उनको इतने दुखो को सहने की क्षमता प्रदान कर रहा है| इनकी मजबूरी एवं हालत देख कर मन को बहुत पीड़ा होती है लेकिन हमलोग इनके लिए कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं।

इन श्रमिकों के जज्बे को नमन है, जो इतना दुःख-दर्द सहते हुए भी अपने आत्मसाहस के बल पर हर बाधा, हर मुश्किल को पार करते हुए अपनी मातृभूमि तक पहुंच रहे है | हमारी संस्कृति भी हमें यही सिखाती है की चाहे कितनी भी कठिनाइयां क्यों न आये मगर अपनी मातृभूमि एवं देश के सम्मान के साथ कोई समझौता न किया जाये। और इन्होने यह साबित कर दिखाया है कि हम भारतीय अपनी मातृभूमि के लिए कुछ भी कर सकते है। 

हमारे देश और समाज की प्रगति-उन्नति में सबसे बड़ा योगदान इन्ही श्रमिकों का है  तथा सबसे ज्यादा शोषण भी इन्ही का होता है। समाज के यह मजबूत स्तम्भ लाख कठिनाईयों के बावजूद कभी उफ्फ तक नहीं करते। ये चुपचाप सारे दुखों को सहते हुए देश की उन्नति के लिए दिनरात अपना खून पसीना बहाते रहते है। 

विडम्बना है कि आज हमारे समाज के ज्यादातर पूंजीपति और उद्योगपति लोग इन श्रमिकों के योगदान को नज़रअंदाज़ कर इनके शोषण में ही लगे रहते है | देश की तरक्की और निर्माण में सबसे बड़ा योगदान देने वाले यह बेचारे श्रमिक आजीवन कर्जों के बोझ तले ही दबे रह जाते हैं। कभी सेठ महाजन के क़र्ज़ के बोझ तले तो कभी शादी का क़र्ज़, तो कभी बीमारी का क़र्ज़, सारा जीवन इनका इन कर्जों से मुक्ति पाने के संघर्ष में ही बीत जाता है | और मरते वक्त अपने कर्जों की गठरी अपनी भावी पीढ़ी को सौंपकर एक गुमनाम सी मौत मर जाते हैं। फिर श्रमिक का वही जीवन चक्र उसकी अगली पीढ़ी भी जीती है अनवरत।

अपने दिल पर पत्थर रखकर इन श्रमिको को अपनी मातृभूमि और अपने घर परिवार से कोसों दूर अपने परिवार के पालन पोषण के लिए दूसरे राज्यों में रोजगार की तलाश में जाना पड़ता है। और वहां हर तरह का कष्ट सहते हुए जानवरों जैसा जीवन जीकर मेंहनत करके थोड़ा बहुत कमाते हैं और उसी में से कुछ बचाकर अपने घर परिवार के लिए भी भेजते है | 

अन्य राज्यों में इन पर कम अत्याचार नहीं होते, कभी इनके मालिक तो कभी वहां के स्थानीय नागरिक बाहरी समझकर इन पर खूब अत्याचार करते है। शासन प्रशासन भी इनकी कभी कोई सुध नहीं लेता| और वहां के नेता तो इनकी सुधि इसलिए नहीं लेते क्योंकि ये श्रमिक उनके वोटर ही नहीं हैं। 

हां चुनाव के समय इनके गांव और क्षेत्र के हर नेता, हर प्रधान को इनकी याद आती है और उनकी मीठी बातों, चुनावी वादों और चंद पैसों के लालच में ये बेचारे उन धूर्तो और अवसरवादियों की बातो में आकर वोट डालने अपने गांव आते हैं और उनका चुनाव कर बैठते है | 

चुनाव खत्म होते ही सबकुछ फिर पहले जैसा ही होने लगता है। ये एक बार फिर ठगे जाते हैं मौक़ापरस्त नेताओं के हाथों। इनके वोटों के सहारे कोई भी ऐरा गैरा एसयूवी से लाव लश्कर लेकर चलता है और देखते ही देखते करोड़पति बन जाता है। और इनके हाथ आता है एक बार वही कर्जों से लदा जीवन, हाड़ तोड़ मेहनत, खाने को सुखी रोटी और सोने को बड़े शहरों का छोटा सा फुटपाथ। जिसपर सोने में सुबह जिंदा उठने की भी कोई गारंटी नहीं होती, क्योंकि कभी किसी रात कोई शराब के नशे में चूर अमीर इनको अपनी महंगी गाड़ी से रौंदता हुआ निकल सकता है। 

आज के हालत देखते हुए ऐसा लगता है की इनका सिर्फ और सिर्फ वह परम पिता परमेश्वर ही है, और वही इन सबको इतनी हिम्मत देता है कि इतनी विषम परिश्थितियों के बावजूद ये लगातार जूझ रहे हैं जीवन संघर्ष में। 

यूपी बिहार के अलावा किसी भी राज्य के श्रमिको को रोजी रोटी की तलाश में अपने राज्य से बाहर नहीं जाना पड़ता क्योंकि उन्हें उनके राज्य में ही उनकी रोजी रोटी की व्यवस्था है। इसलिए आज इस बात की सख्त आवश्यकता है की यूपी बिहार की प्रदेश सरकारें अपने राज्यों में अधिक से अधिक उद्योग-धंधे स्थापित करे, ताकि इन् मजदूरों को जीविका के लिए अपनी मातृभूमि से दूर न जाना पड़े और ये श्रमिक सम्मान सहित अपनी जीविका अपनी मातृभूमि में रहकर ही चला सके। 

सरकार यह भी सुनिश्चित करे की इन श्रमिकों के लिए जो भी कल्याणकारी योजनाए चलाई जा रही हैं उन सभी का लाभ ईमानदारी से इन सभी को मिले और इनका हक बिचौलिए न खा जाएं। ताकि इन सभी का कष्ट दूर हो सके और यह सभी श्रमिक बगैर किसी दुःख और पीड़ा के समाज के विकास में अपना निरन्तर योगदान  देते रहे। 

यदि हमारे परिवार में किसी एक सदस्य को कोई कष्ट होता है तो सभी परिजनों को कितना कष्ट होता है। ऐसे ही हमारा देश भी तो एक परिवार है और यह श्रमिक भी हमारे उसी परिवार का हिस्सा है, और परिवार के एक सदस्य को कोई कष्ट हो तो दूसरे को भी महसूस होना स्वाभाविक ही है।

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