अंतिम सत्य-अंधेरा और सन्नाटा


उस वीरान और सुनसान से कमरे की सूनी दीवारों को तकते हुए रमेश आज फिर उन पुरानी यादों में डूब चला था...जीवन के 70 वर्ष काट चुके रमेश के पास अगर कुछ शेष बचा था तो बस पुरानी यादों की गठरी ही थी...
और रह गया था सिर्फ...अंधेरा..और...सन्नाटा....जीवन के अंतिम पड़ाव का विराट सत्य...
पत्नी तो बहुत पहले ही साथ छोड़ गई थी और जीवन भर की जो कमाई थी वो संतानों ने बांट ली थी। बस रह गया था तो एक सुनसान वीरान सा कमरा और उस वीरान कमरे की सूनी मनहूस दीवारें, जो रमेश की वीरान जिंदगी की साथी थीं।
यूं तो कहने को रमेश के बेटे-बहु, नाती-पोते सभी थे लेकिन सब अपनी अपनी जिंदगी में मशगूल थे, किसी के पास बूढ़े के लिए वक्त ही कहां था।
जिस रमेश ने अपना पूरा जीवन, अपना एक-एक पल अपनी संतानों की परवरिश में खत्म कर दिया उस बूढ़े के लिए उसके अपने ही घर में किसी के पास वक्त नहीं था.....बस किसी तरह उसे दो वक्त की रोटी मिल जाया करती थी वो भी ऐसे मानो कोई ऐहसान कर रहे हों।
6 भाइयों में सबसे छोटा रमेश जो सबका प्यारा और लाडला था..बचपन से एकदम भोला-भाला निश्छल और मासूम था वो। किसी से न कोई बैर न कोई शिकायत, न तो किसी से झगड़ा, एकदम सीधा सादा सच्चा और मेहनती। घरवालों के साथ साथ गांव में भी सभी लोग रमेश को बहुत प्यार करते थे।
एक आदर्श बालक था रमेश, अच्छे संस्कार और पढ़ने में भी खूब तेज था इसलिए अभावों के बावजूद 15 किलोमीटर दूर पैदल जाकर और बरसात के दिनों में सीने तक पानी में तैरकर भी स्कूल जाता और मेहनत से पढ़ाई करता । उन दिनों न तो कॉपी किताबों का ठीक से इंतजाम था न ढंग के कपड़े और न ही रात में रोशनी की कोई व्यवस्था थी उस जमाने में लेकिन इतनी कठिनाईयों के बाद भी रमेश ने इंटर तक की पढ़ाई अच्छे से पूरी की।
रमेश अब 18 साल का हट्टा-कट्टा नौजवान हो चुका था...उन दिनों रमेश के चेहरे का नूर देखते ही बनता था..जो भी उसे देखता बस देखता ही रह जाता था...
बड़े भाई ने आगे की पढ़ाई में सहयोग करने को कहा लेकिन रमेश ने आगे पढ़ने से मना कर दिया क्योंकि घर की परिस्थितियों के चलते उसे अब नौकरी की तलाश करना बेहद जरूरी लग रहा था।
खाली समय में रमेश गांव के गरीब बच्चों को बैठाकर मुफ्त पढ़ाया करता...
इस बीच घरवालों ने रमेश की शादी भी करा दी....जैसा कि उस दौर में होता था कि ज्यों लड़के की दाढ़ी-मूंछ आनी शुरू हुई कि घरवाले शादी कर देते थे।
अब रमेश नौकरी के लिए और अधिक प्रयास करने लगा। पढ़ने में तेज होने के कारण रमेश का जल्द ही एक अच्छी सरकारी नौकरी के लिए चयन हो गया और रमेश के अरमानों को मानो पंख लग गए। बड़े शहर की अच्छी नौकरी, सरकारी आवास बढ़िया रहन सहन सब कुछ मिल गया तो रमेश अपनी पत्नी को भी अपने साथ शहर ले गया और दोनों पति-पत्नी एक अच्छी जिंदगी जीने लगे जहां सिर्फ खुशियां ही थी उनकी जिंदगी में। वो कहते हैं न कि अच्छा वक्त बहुत तेजी से भागता है और वक्त बीतने के साथ बाल-बच्चे हुए जिम्मेदारियां बढ़ीं...समय बीतता गया और वक्त पंख लगाए उड़ चला तेजी से आगे और साथ ही रमेश की जिंदगी के वो सुनहरे पल भी हवा होते चले गए...रमेश जिम्मेदारियों का बोझ अपने मजबूत कंधों पर उठाए जिंदगी की लड़ाई हौसले के साथ लड़े जा रहा था क्योंकि उसके साथ उसकी हमसफर उसकी पत्नी हर कदम पर उसके साथ थी...
फिर...एकदिन अचानक ऐसा हादसा हुआ जिसने जिंदगी की कठिन राहों पर मजबूती से चलते रमेश को तोड़ कर रख दिया....बेरहम वक्त ने उसकी हमकदम उसकी पत्नी को उससे छीन लिया...
टूटकर बिखर गया था रमेश पूरी तरह...जैसे मानों किसी परिंदे ने दिन रात एक करके अपना घरौंदा बनाया हो और हवा के एक झौंके से वो टूटकर बिखर जाए...
जिम्मेदारियों का पहाड़ अकेले कैसे उठा पायेगा वो?
सोचते ही उसका हौसला जवाब दे देता....
वक्त बीतता रहा...और वक्त के साथ-साथ पत्नी को खोने का गम एक अंदरूनी जखम बनकर सीने में कहीं दफन होता चला गया....वो कहते हैं न कि वक्त सबसे बड़ा मरहम है जो हर जख्म को भर देता है या यूँ कहें कि इंसान उस जख्म को सीने में दफन करके जीना सीख जाता है...
फिर रमेश ने हालात से समझौता किया और बाल बच्चों की परवरिश के लिए खुद को झोंक दिया जिम्मेदारियों के चूल्हे में ताकि बच्चों को किसी तरह की कमी न होने पाए।
रमेश ने अपना फर्ज जी जान लगाकर निभाया और अपने बच्चों को वो सब कुछ दिया जो रमेश को अपने बचपन में कभी हासिल न हो सका था। शायद किसी भी सुख का महत्व तो वही अच्छे से जानता है जिसे वो कठिनाई से हासिल हुआ हो या न मिल पाया हो।
जिम्मेदारियों के बोझ ने रमेश के चेहरे को झुर्रियों से भर दिया था..रमेश वक्त से पहले ही बूढा हो चला था..अपनों के लिए, अपनों की खुशियों के लिए...
वक्त के कुछ पन्ने और पलट गए और अब तो रमेश के बच्चों की शादियां भी हो गयी और सब अपनी गृहस्थी में बखूबी रम गए थे...
वक्त भागता जा रहा था तेजी से और रमेश भी उतनी ही तेजी से बूढ़ा होता चला जा रहा था...
फिर एक दिन सरकार ने भी रमेश को बूढा मानकर नौकरी से रिटायर कर दिया मानो अब वो उनके किसी काम का न रहा हो...ठीक ही है सभी को काम से ही काम है इंसान क्या है?
अब रमेश की जिंदगी ज्यादा कठिन हो चली थी क्योंकि जब तक नौकरी थी तब तक वक्त बीत जाया करता था लोगों में, ऑफिस में, पर अब तो वक्त मानो थम सा गया था...
समय ही समय था जो कटता ही नहीं था किसी भी तरह..
अब इस अकेलेपन में रमेश को अपनी दिवंगत पत्नी की कमी अधिक खलने लगी थी...पत्नी की अहमियत का अहसास उसे अब पहले से कई गुना अधिक महसूस होने लगा था...
अक्सर रमेश एकांत में बैठकर अपनी पत्नी को याद करता और उसकी आंखें भर आती थीं....फिर इससे पहले कि कोई उसे रोता हुआ देख ले रमेश जल्दी से अपनी आंखें पोंछ लेता।
और यूँ ही यादों में खोए हुए रमेश की आंखों से आंसूं बेतहाशा बहते चले जा रहे थे की तभी दरवाजे पर आहट हुई तो रमेश वापस लौटा अपने अतीत की यादों से.....
वैसे भी अब रमेश की जिंदगी में कुछ शेष रह गया था तो बस अतीत की यादे, आंसूं.......
अंधेरा....और...सन्नाटा.....जीवन के दो विराट सत्य....
जिंदगी इनके मुकाबले कितनी भगोड़ी और स्वप्नवत है...।

-स्वरचित एवं काल्पनिक
©संजय राजपूत

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