शहीद की विधवा


यह सच्ची कहानी भारतीय सेना के एक ऐसे वीर सैनिक की कथा है जो 1962 के भारत-चीन युद्ध के दौरान दुश्मन से लड़ते हुए लेह-लद्दाख की बर्फीली पहाड़ियों में ही कहीं लापता हो गए थे और आजतक उनका कोई पता नहीं चला ।

श्री सूर्यबली सिंह पुत्र स्व0 श्री साहब सिंह जो कि ऊत्तर प्रदेश राज्य के मऊ जिले के गांव खुंटी मखना पोस्ट बहादुरगंज के निवासी थे, वे अपने पिता की सबसे छोटी संतान थे ।

उनका विवाह 1960 में यूपी के बलिया जिले के ग्राम वीरचंद्रहा की कुंती देवी से हुआ था । शादी के कुछ माह बाद ही सन 1961 में सूर्यबली सिंह फौज में भर्ती होकर ट्रेनिंग के लिए चले गए और फिर कभी वापस नहीं लौटे । उनकी ट्रेनिंग पूरी होते होते ही भारत-चीन के बीच हालात खराब होने लगे थे और अंततः 1962 में भारत-चीन युद्ध छिड़ गया ।  सभी जवानों की छुट्टियां रद्द कर दी गयी और सबको युद्ध के लिए कूच करने का आदेश जारी कर दिया गया...

सूर्यबली सिंह जिनकी शादी को अभी महज कुछ माह ही बीते थे कि उन्हें अपनी नई नवेली दुल्हन को छोड़कर युद्ध के मैदान में कूदना पड़ रहा था...ऐसे में जबकि दोनों पति-पत्नी एक दूसरे से ठीक से परिचित भी नहीं हो पाए थे न ही जी भर के बातचीत ही कर पाए थे । लेकिन कौन जानता था कि वे सदा सदा के लिए एक दूजे से जुदा हो रहे थे । उस नई नवेली दुल्हन को क्या पता था कि उसके हाथों की मेहंदी का रंग उतरने से पहले ही उसका सुहाग युद्ध की बलि बेदी पर शहीद हो जाएगा...

उस समय गांवों में आज इतना खुलापन कहां होता था..पति-पत्नी बडे-बुजुर्गों की नजरें बचाकर बड़ी मुश्किल से ही कभी-कभार मिल पाया करते थे..उस दुल्हन ने तो अभी अपने जीवनसाथी को जी भरके फुरसत से देखा भी नहीं था न ही खुलके कभी बातें ही कर पाई थी...
अभी तो वे अपनी नई जिंदगी के सपने बुनने शुरू ही कि थीं और अपने पति के ट्रेनिंग पर से लौटकर छुट्टी में घर आने की राह देख ही रही थीं तभी उनको भारत-चीन में युद्ध छिड़ जाने की खबर मिली..और पता चला कि उनके पति सूर्यबली सिंह भी युद्ध लड़ने के लिए जा रहे हैं।

यह खबर सुनते ही बेचारी उस दुल्हन की स्थिति ऐसी हो गयी मानो काटो तो खून नहीं...वो घर में बदहवास सी इधर से उधर दौड़ती, लेकिन एक नई दुल्हन को चारदीवारी से बाहर निकलने तक कि इजाजत कहाँ थी उस जमाने में...न ही संपर्क करने का कोई साधन ही मौजूद था आज की तरह।

वो बेचैन थी कि किसी तरह वो अपने पति की एक झलक देख पाती या एक बार बात कर पाती...लेकिन वो अंदर ही अंदर घुटती रह गयी और उधर सूर्यबली सिंह जो कि अभी नए नए रंगरूट थे तो उनको ड्यूटी दी गयी सीमा पर युद्ध लड़ते जवानों को खाद्य-रसद सामग्री मुहैया कराने की ।

फौज के नए जवान सूर्यबली सिंह अपने फर्ज को निभाने के लिए लेह-लद्दाख की बर्फीली पहाड़ियों में सिर पर कफन बांधकर उत्तर गए लेकिन उनकी आंखों में बार-बार अपनी नई-नवेली दुल्हन कुंती का ही चेहरा घूम रहा था।

युद्ध अपने पूरे जोरों पर था....भारतीय सेना ने दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिए थे...चीनी सेना बदहवास और बौखलाई हुई थी....और सूर्यबली सिंह की दुल्हन भी चारदीवारी के अंदर बदहवास और डरी-सहमी बैठी रहती थी...एक अनजाना सा डर उसे हर पल सताता रहता था...वो अपने पति की कुशलता जानने के लिए उतावली थी लेकिन कुछ भी पता चल पाना कठिन था । उस जमाने में एक रेडियो ही था जिससे  थोड़ा बहुत समाचार  मिल पाता था...

सिपाही सूर्यबली सिंह का काफिला लद्दाख की बर्फीली पहाड़ियों के बीच से होता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था..रास्ता बहुत ही कठिन और खतरनाक था और बर्फ के नीचे दलदल का भी खतरा था जिसपर पैर पड़ते ही न जाने कितनी गहराई में समा जाने का डर था...

काफिला आगे बढ़ता जा रहा था तभी चीनी सेना ने अचानक हमला बोल दिया...सभी फौजी चीनी सैनिकों से भिड़ गए और हर तरफ मार काट चीख पुकार मच गई..सैनिक लड़ते लड़ते बर्फीली खाइयों में समाते जा रहे थे...कुछ घायल थे जो मृत्यु के करीब थे...

फौजी सूर्यबली सिंह जी जान से दुश्मन से लड़ रहे थे लेकिन बुरी तरह घायल होने के कारण उनके हाथ पैर जवाब देने लगे थे....अब उन्हें अपनी मौत करीब दिख रही थी लेकिन उस अंतिम वक़्त में भी उन्होंने अपना हौसला नहीं छोड़ा और दुश्मन का डटकर मुकाबला करते रहे...तभी एक चीनी सैनिक ने अचानक पीठ पीछे से हमला कर दिया जिससे सूर्यबली सिंह जो कि पहले ही बुरी तरह से घायल थे, अपना संतुलन खो बैठे और गहरी बर्फीली खाईयों में  समाते चले गए.......सदा-सदा के लिए.....

माँओं की कोख सूनी हुई, दुल्हनों की मांग उजड़ गयी, बच्चे अनाथ हो गए....
और इस तरह भारत चीन युद्ध का अंत हुआ..

फिर एक दिन फौजी सूर्यबली सिंह का फौजी बक्सा और उनका सारा सामान उनकी बटालियन द्वारा उनके गांव भेज दिया गया और कहा गया कि सूर्यबली सिंह युद्ध के दौरान बर्फीली पहाड़ियों में कहीं लापता हो गए और उनका शव भी नहीं मिल सका।

एक नई-नवेली दुल्हन जिसके हाथों की मेहंदी तक अभी नहीं छूटी थी उससे पहले ही उसकी मांग का सुहाग उजड़ गया।

बहुत बरसों तक शहीद फौजी सूर्यबली सिंह की विधवा को इंतज़ार था कि शायद उसका पति जीवित हो और वापस लौट आये।

लेकिन अब तो उस विधवा की आस भी टूट चुकी है और जीने की इच्छा भी....क्योंकि आज तक न तो सरकार ने ही उसकी सुध ली है और न ही उसे एक शहीद की विधवा का दर्जा ही दिया गया...और न ही कभी उसे शहीद की विधवा के रूप में किसी मंच पर सम्मानित ही किया गया।

बेहद अफसोस की बात है कि शहीद सूर्यबली सिंह की शहादत को सेना, सरकार और देश की जनता किसी ने भी कभी याद नही किया और न ही उनकी विधवा कुंती देवी को ही आज तक कभी शहीद की विधवा का सम्मान और दर्जा दिया गया ।

"ज़िंदगी की राह में रौशन रही वो
माँग में सिंदूर, सर चूनर बनी थी,
रात के अंधेर में बेबस हुई अब
जिंदगी की नींव है उजड़ी हुई सी।"

#स्वरचित एवं पूर्णत: सत्य घटना पर आधारित
©संजय राजपूत

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